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दिल्ली की गलियां
मेरा नाम मुकेश है , नगर गांव का लड़का हूँ मैं।
आधीरात को जंगल में जाकर लौट सकता हूँ ,
अमावस्या को गांव के शमशान से शव जलाने वाले
लकड़ी न जाने कितनी बार लाया हूँ । परन्तु मेरा
डर है केवल दिल्ली शहर से , जहां दो कदम बढ़ने पर
लोगों से धक्का लगता है । इलेक्ट्रिक लाइट के कारण
दिन है या रात समझ ही नही आता । वहीं पर एक
रात जिस मुसीबत में पड़ा था क्या बताऊँ ।।
" नही दिल्ली शहर में शाम के बाद निकलना इससे डरने
की बात नही । "
मेरी यह बात सुन सब हँस पड़े ।
" तो सुनो फिर बताता हूँ । "
कुछ महीनों पहले कुछ किताब व सामान खरीदने दिल्ली
गया था ।सोचा था एक दिन में ही सबकुछ खरीद रात के
बस से घर लौट आऊंगा । लेकिन दिल्ली जाने पर इधर
उधर न घूम कर कैसे रहा जाए । पहला दिन इसी में कट गया दूसरे दिन बुक मार्केट जाकर किताब व कुछ सामान खरीद लिया । कोई बड़ा समान नही था एक बैग में सभी किताब भर , एकदम सीधे दिल्ली स्टेशन पर जाना ही
ठीक होता ।
लेकिन तुरंत ख्याल आया सोचा एकबार आशीष के साथ
मिलकर आऊं । आशीष हमारे गांव का ही लड़का है स्कूल
में मेरे साथ पढ़ाई की है और कॉलेज में भी कुछ साल हम
दोनों पढ़े थे । अवश्य ही आशीष ज्यादा दिन नही पढ़ा ।
बहुत ही भावनात्मक लकड़ा है , किसी काम में बहुत दिन
तक सब्र करने का धैर्य नही था । बचपन से ही दूर की सोच , बचपन में घर से भी बहुत बार भाग चुका है ।
बड़े होने पर भी उसका यह स्वभाव नही गया ।
बातचीत नही , कुछ नही ।
एकदिन हमसब सुने की महाराज हरिद्वार चले गए ।
उस बार किसी तरह हम सब कॉलेज के रजिस्टर में अवकाश को कम करके रखा । लेकिन ऐसे कितने दिन रखा जाए । वर्ष के अंत में परीक्षा के समय हमारे
अवकाश घटाने के बाद भी कॉलेज में इतने कम दिन
आया कि उसके परीक्षा देने की अनुमति असंभव ।
हमसब दुखी हुए, लड़का इतना अच्छा और मिलनसार
था कि हम सभी उसे पसंद करते थे । लेकिन आशीष को मानो बहुत अच्छा लगा कि उसे अब परीक्षा नही देना है ।
बोला – " तब और क्या जा रहा हूँ बंगाल की खाड़ी व
अरब सागर घूम कर आता हूँ । "
फिर महीनों आशीष गायब , हम लोगों से उसका मन
कुछ अलग था , यह पृथ्वी बहुत ही बड़ा है इसी आनदं
से उसका मन भरा रहता था । पृथ्वी के इस बड़े जंजाल में पथ - पथ घूमकर , उसके और देखने की आशा नही
मिटती थी ।
जिन सब देशों को उसने नही देखा उनके बारे में वह इतने
मग्न होकर बोलता कि हमें भी कभी - कभार मोह लग
जाता था । ऐसा लगता इस छोटे शहर के छोटे जानने
वाले रास्तें पर आनेजाने से जीवन का कोई मतलब नही है ।
रास्ता जहां समाप्त है आसमान का जहां किनारा है
वहां खड़े होकर गहरी सांस न लेने पर बचना ही
असंभव है ।
लेकिन हमारे ये क्षणिक मोह कुछ मिनट के बाद ही
कट जाते पर आशीष को यह सब मोह कुछ भी नही था
यह था इसका नशा । उसका कहना था कि धरती पर
बहुत कुछ है जो आपके आने का इंतजार कर रहा है ।
सात महीने पहले मेरे घर के पते पर एक चिट्ठी आया था
बहुत दिन बाद , एक गली का पता देकर बताया था कि
बहुत जगह घूमकर वह दिल्ली में इस पते पर है मैं जाकर
उससे मिल लूं । इतने दिन बाद उसके बताये पते पर जाने
पर वह नही मिलेगा यह जानते हुए भी एकबार जाने का
मन किया । घर का नम्बर भूल था पर गली याद था ।
सोचा यहां से बहुत दूर नही होगा वैसे भी ट्रेन को अभी
काफी देर है जाऊं उससे मिलकर ही आता हूँ शायद वह
मिल जाए ।
कुछ देर खोजने के बाद एक गली वाले रास्ते पर एक
आदमी से जाना कि और कुछ आगे ही आशीष जिस
गली में रहता है वह मिल जाएगा । रात तब बहुत नही
है यही साढ़े सात या आठ लेकिन गली से चलकर आगे
बढ़ते ही बहुत आश्चर्य हो गया । गली हो या मोहल्ला यह
आखिर दिल्ली का रास्ता ही तो है फिर भी इस आठ बजे
भी वहां पर एक भी मनुष्य व जानवर नही है । सोचा
था कुछ दूर जाकर ही कोई आदमी दिख जाएगा उससे
सब जान जाऊंगा पर मनुष्य कहाँ हैं ?
और यह गली भी खत्म नही हो रही , एक बार संदेह हुआ
कि शायद गलत रास्ते पर आया हूँ । लेकिन जिस आदमी
ने मुझे यह गली बताया उसको ऐसा करने से क्या लाभ
है ? निर्जन रास्ते पर चोरी व डकैती तो नही लेकिन मेरे
पास कौन सा लाख - पचास हजार है कि चोरों को
षणयंत्र करना पड़े । और मेरे पहनावा को देख किसी बड़े
आदमी होने की संभावना भी नही है तो फिर ।
और कुछ आगे बढ़ गया , रास्ता वैसे ही निर्जन है रोड
साइड लाइट भी धीमे - धीमे जल रहा है वैसे भी लाइट
पोस्ट बहुत दूर - दूर है और उनके प्रकाश इतने कम हैं कि
रास्ता दिखने से नही रहा बल्कि वह जल रहे हैं यह भी
नही पता चल रहा । बीच दिल्ली के अंदर ऐसा रास्ता भी
है कौन जानता था । दोनों तरफ के घर मानो कई युग
पहले बने थे टूटे - फूटे दीवाल व निकले ईंटों से खड़ें है ।
न तो एक भी घर में लाइट है और न ही जनमानस के
एक भी शब्द , रास्ते के पास बर्षो पहले के पुराने घर की तरह सब खड़ें हैं । क्रमशः ऐसा लगा किसी तरह का एक गंध आ रहा है ।
बहुत दिन से जहां प्रकाश और ताजी हवा नही गया ,
मनुष्य का वास जहां बहुत दिन से नही है उस घर में
जाने पर जैसा गंध आता है ठीक उसी प्रकार का गंध
उस गली से आ रहा था ।
उस आदमी ने कहा था कुछ दूर जाने पर दाहिने तरफ
एक गली मिलेगा लेकिन इस पुराने घरों के दाएं व बाएं कहीं कोई गली नही है । सामने का रास्ता भी कुछ दूर
आगे ही बंद है , जिस रास्ते से अंदर गया हूँ मतलब उसी एक रास्ते से इस गली के बाहर जा सकतें हैं ।
आश्चर्य की बात है उस आदमी ने ऐसे ही गलत रास्ता
क्यों बताया ।
वहां से लौटा यह गली मानो अब और अंधकार मालूम
हो रहा था । अबतक जो लाइट टिमटिमाते हुए जल रहे
थे उन्हीं में से कुछ अब एकदम से बंद हो गए हैं ।
ऐसा लगा कि इस गली से निकलने पर ही अच्छा होगा ।
डरपोक मैं नही हूँ लेकिन दिल्ली शहर में ऐसे आश्चर्य
बात को देख शरीर भयभीत हो रहा था ।
अभी तो मात्र शाम के 8 बजे हैं , दिल्ली के सभी रास्ते
इस समय लोग और गाड़ी से चिल्ला रहा है । और पता
नही क्यों यह रास्ता अभी से एकदम निर्जन हो गया है ।
ऐसा लगा मानो मैं एक प्राचीन काल के शहर में आ गया
हूँ उस शहर के लोग बहुत पहले घरों को छोड़कर भाग
गए हैं । कितने साल किसी के पैर इस शहर में नही पड़े
कोई नही जानता मैंने ही शायद इस शहर के चुप्पी को
तोड़ा , मेरे खुद के पैरों के आवाज के सिवा और कहीं
भी कोई शब्द नही है । मेरे चलने की आवाज घरों से
टकराकर प्रतिध्वनि कर रहे थे । मेरे आंखों के सामने
ही कुछ पोस्ट लैंप बुझ गए । वह गंध भी बढ़ जाने के
कारण बहुत खराब लग रहा था । नही इस गली से
जितनी जल्दी बाहर निकल जाऊं उतना ही अच्छा है ।
अब आशीष को खोजने की जरूरत नही है ।
किसी दिन , सुबह के समय आने पर अच्छा रहेगा ।
कुछ दूर जाकर आश्चर्य से खड़ा हो गया , यह क्या इधर
की भी गली बंद है । लेकिन यह कैसे हुआ ? मैंने एक
रास्ते से गली में गया इसमें तो कोई संदेह नही है ।
इस गली से आगे जाते हुए आसपास कोई और रास्ता भी
नही था फिर गली के दोनों छोर बंद , ऐसा कैसे हो
सकता है ?
किसी एक रास्ते से तो मैं अंदर आया हूँ , फिर सोचा हो
सकता है और एक रास्ता होगा जाते वक्त मेरा ध्यान नही
होगा । अब लौटते वक्त किसी गलत गली में आ गया हूं
इसीलिए यह बंद है लेकिन ऐसा भूल हुआ कैसे ?
मैं तो पागलों की तरह नही गया था सबकुछ देख कर ही
चल रहा था । रास्ते पर लोग न हो पर किसी घर में एक
लाइट तो दिखता । या किसी को बुलाकर पूछ लू , जो भी
हो यहाँ खड़े रहने से कोई लाभ नही जानकर फिर लौटा
गली से निकलना होगा जैसे भी हो फिर उस अंधेरे गली से
खुद के पैर के आवाज को सुनते -सुनते आगे बढ़ चला मैं ,
यह गली मानो क्रमशः दीर्घ ही होता चला जा रहा है ।
मेरे न जानते हुए किसी ने इसे और लंबा कर दिया है इस बार भी जब देखा गली बंद है तो सीने में डर कुछ बढ़ सा गया ।
वैसे भी मैं गांव का लड़का हूँ खुले आसमान व खुले मैदान
में बड़ा हुआ हूँ , शहर आने पर वैसे भी मुझे ज्यादा कुछ
समझ नही आता और उसके ऊपर ऐसे बासी गंध से भरा
अंधकार गली , वह मानो मुझे जेल के कोठरी की तरह
बंदी बनाना चाहता है । ऊपर देखकर आसमान देखूंगा ,
वह भी नही दिख रहा एक धुंधले कोहरे में आसमान भरा
है कि उसके अंदर से एक तारा भी नही दिख रहा ।
जितना भी यह अद्भुत नजारे देख रहा था उतना सिर घूम
रहा । क्या करूँ कुछ भी समझ नही पा रहा था ।
बैग किताबों व सामान की वजह से भरी ही था उसको
ढोने के कारण खूब थकावट महसूस हो रहा था ।
ऐसे ही कुछ देर घूमने पर थककर कहीं बैठ जाना होगा ।
अचानक मेरा धड़कन कांप उठा कुछ दूरी पर टिमटिमाते स्ट्रीट लाइट के नीचे आदमी खड़ा है न । जल्दी से उसी
तरफ आगे बढ़ा , पास जाकर देखा , अरे ये तो हमारा आशीष है । इतने समय के भय व भावना सब सेकंड
में भूल गया ।
" आशीष " आनंद से चिल्लाकर उसे बुलातें ही वह चौंक
कर देखा ।
मैं बोला – " क्या आश्चर्य है तुम्हें खोजते ही तो
इस गली में भटक रहा हूँ । बाप रे बाप किस अद्भुत गली
में रहते हो तो अंदर आने पर और निकल नही सकते । "
आशीष हँसकर बोला – " आ गए मतलब । "
मैं बोला – " आया कहाँ हूँ तुमको न देखता तो कहाँ इस
गली में तुम्हारा घर खोज पाता ।"
मेरे बात का कोई उत्तर न देकर आशीष बोला – " तो
तुम्हें अभी भी मैं याद हूँ । "
" यह क्या बात हुई , जरूर । "
" नही भाई याद नही रहते , अथवा मनुष्य जितना भी
याद करके रखता है उसके अंदर ही हमसब जिंदा
रहते हैं । "
मैं हँसकर बोला – " तुम तो थे घुमन्तु , दार्शनिक कब से
हो गए । छोड़ अब तेरे घर चल तुम्हारे सभी कहानियां
सुनना चाहता हूं । "
आशीष कुछ निरुत्साहित होकर बोला – " मेरे घर ,
चलो । मेरा चिट्टी मिला था । "
" हाँ वो तो कई महीने पहले । "
" तुम्हारे लिए बहुत दिन इंतजार किया भाई , उसके बाद
फिर निकल गया । "
" फिर , तो लौटे कब । "
उदास होकर आशीष बोला – " आज "
" आज ही इसबार कहां गए थे । "
" चलो बता रहा हूँ । "
उसी निर्जन गली से सी तब हम आगे बढ़ चले लेकिन
तब पहले के सभी बातें याद नही थी ।
आशीष ने बोलना शुरू किया ,
" इस बार भाई गया था बहुत दूर , विशाखापट्टनम
बंदरगाह पर घूमते - घूमते एक दिन एक सुंदर सा जहाज
देखा , सुंदर कहे तो नया नही जहाज तो बहुत पुराना था
समुद्र के खारे पानी के कारण उसका रंग उड़ गया था
चिमनी धुएं में काले हो गए हैं । जहाज को देखने पर ऐसा
लग रहा था कि इस काल इसने कई देशों व विदेशों के सैर
किए हैं । फिर सुना कि यह जहाज माल लेकर जाएगा
जावा द्वीप पर , यह सुन और खुद को नही रोक पाया
भाई ,जावा द्वीप सोच सकते हो हाँ , जहां दूर - दूर समुद्र
के किनारे नारियल के पेड़ों से भरे हुए हैं । वातावरण
और जंगल में मसालों के सुगंध आहा ! , यही सोच
एकदम पागल हो गया जानते हो , चाहे जैसे भी हो जाना
ही है जहाज में । जहाज के भाड़े के जितना पैसा नही था और कहाँ वह जावा द्वीप दूसरा देश , बहुत मुश्किल से जहाज के एक चालक को खोज कुछ घूस देकर ,
छुपकर जाने का व्यवस्था किया ।
जहाज में एक तरफ विपत्ति समय के लिए तिरपाल से ढंका छोटी नाव रहता है उसी में ,
तय हुआ कि उसी में से एक के अंदर मैं छुपकर बैठा
रहूंगा । एक आदमी एक समय छुपकर मुझे खाना दे
जाएगा ।
इसी निर्देश से रात को जहाज पर जाकर बोट में छुपकर
बैठ गया । भोर होने से पहले ही जहाज चल पड़ा , उसके
बाद कुछ दिन बहुत ही अद्भुत तरीके से कटाया , पूरा दिन
उसी के अंदर छुपा रहता , तिरपाल उठाकर बीच - बीच में
आसमान देखता और जहाज के आवाज को सुनता ।
आधीरात को जब सब आराम करने चले जातें हैं तब कुछ
ही लोग वहां होते हैं उसी समय निकलकर जहाज के
रेलिंग के पास खड़ा होता था । ऐसे ही कुछ दिन बाद जावा
जा पहुंचा । पहले से ठीक था कि सभी जब उतर जाएं तब
वह चालक किसी तरह मेरे उतरने की व्यवस्था कर देगा ।
लेकिन बंदरगाह पर जहाज के जाने से एक दिन पहले
ही वह बताकर गया कि ऐसा करने का कोई उपाय नही है ।
यहां माल उतारने के बाद ही तुरन्त जहाज चेकिंग के
लिए जाएगा । वह आदमी जो मुझे खाना देकर जाता
था उसने उपाय बताया कि जब सभी जहाज को बंदरगाह
पर भिड़ाने में लगे होंगे तब किसी तरह मैं पानी में उतर
अगर तैरकर जाऊं तो बच सकता हूँ । मैं इसी में राजी हुआ
अगले दिन जहाज किनारे पर लगाने की व्यवस्था हो रही
है उसी समय छुपकर बोट से निकलकर मैं नीचे उतर गया ।
जहाज के दूसरे तरफ रेलिंग से जाकर नीचे कूद गया ।
नीचे कूदा वह तो ठीक है पर उसी समय जहाज के किनारे
से टकराने के कारण कुछ इधर आना शुरू किया , जहाज
के पैडल से पानी की बड़ी लहरें उठ पड़ी । उस लहर
में बहुत खिंचाव था किसी भी तरह उससे नही निकल
पाया और सीधे जाकर उस घूमते पैडल से धक्का लगकर
नीचे की तरफ चला गया । "
मैं चौंक कर बोला – " फिर "
" फिर क्या उसी पैडल का धक्का कितना जोर से लगा
है देखोगे ? "
सामने एक स्ट्रीट लाइट जल रहा था उसी के पास जाकर
आशीष ने शर्ट उठाकर दिखाया ।
यह क्या ? शर्ट के नीचे तो कुछ भी नही है , एकदम साफ
कुछ भी नही , फिर ठीक से देखा देह नही है कुछ भी नही
है उस तरफ के लैंप पोस्ट को मैं साफ देख रहा हूँ । ऊपर
की तरफ देखा आशीष का सिर नही है , कुछ भी नही ।
डर से चिल्लाकर बैग हाथ में लेकर मैं दौड़ना शुरू किया
लेकिन जाऊं कहाँ जिधर भी जाता हूँ उधर गली का मुंह
बंद है । चिल्लाते हुए एक पुराने घर के दरवाजे को
पीटने लगा ।
" कोई है , कोई है अन्दर , कोई है " दरवाजा झनझना उठा
पर किसी की कोई आवाज नही , चारो तरफ अन्धेरा ,
तभी मुझे ऐसा लगा मानो यह गली मेरे चारो तरह
सिकुड़ते हुए बढ़ रहा है सब जगह एक दुर्गंध ।
उसके बाद मुझे और कुछ याद नही है ।
जब होश आया तो देखा कोई एक आदमी मुझे बोल रहा
है कि साहब उतरिए दिल्ली बस स्टैंड पहुंच गए हैं ।
दिल्ली बस स्टैंड , आश्चर्य होकर देखा । मैं अपने बैग के साथ एक रिक्शे पर बैठा हुआ हूँ सामने दिल्ली बस स्टैंड
, उतरकर रिक्शे का भाड़ा दिया लेकिन कब और
कैसे मैं रिक्शे पर चढ़ा कुछ भी याद नही कर पाया ।
फिर कुछ दिन बाद खोज लेकर पता चला कि ठीक चार
महीने पहले जावा के बंदरगाह पर आशीष ठीक उसी
तरह मारा गया था । तो वह कौन था जो मुझसे दिल्ली
की उस गली में मिला था तो क्या आशीष की आत्मा ?
।। समाप्त ।।